लुप्त होती कला और परम्परा
संझा तू थारे घर जा... थारी बई मारेगा... कुटेगा... डेरी में ड़चकेगा... और वास्तव में संझा अपने घर चली गई।
श्राद्ध पक्ष के सोलह दिन मालवांचल की बालिकाओं के लिए बड़े मस्ती भरे होते थे, दुर्भाग्यवश हमने अच्छी शिक्षा के नाम पर अपनी परम्पराओ को लगभग खो सा दिया है।
संजा गीत बाल कविताएं हैं । इनके अर्थ और भाव के बजाय अटपटे ध्वनि प्रधान शब्द और गाने वालों की मस्ती भरी सपाट शैली आकर्षित करती है । कुछ गीतों को बरसों-बरस से दोहराने से शब्द घिस कर नये रूप पा गए - कहीं अर्थहीन हैं या अन्य अर्थ देते हैं किन्तु बच्चों को इस सबसे क्या ? उनका उत्सव तो गोबर से बनाएं भित्ति चित्रों की रचनात्मकता , गीतों की अल्हड़ - अलबेली ध्वनियों से है, तालियों और कन्या-कंठों से संध्या समय नये कलरव से भर जाता है।
बच्चे हर घर जा जा कर इन गीतों को दोहराते हैं और संजा माता का प्रसाद हर घर , हर दिन नया, बड़े गोपनीय ढंग से प्रसाद पर कपड़ा ढक कर लायेगी बिटिया और पूछेगी - ताड़ो ?
मतलब, बताओ इसमें क्या है ? सब हिला - डुला कर देखेंगे ,सूंघेंगे , यदि फिर भी न बता पाये तो लाइफ लाइन - कौन सी परी ?
मीठी परी, चरकी परी, खट्टी परी ?
बड़ा हो हुल्लड़ श्राद्ध पक्ष के सोलह दिन चलता है ।
शाम ढलते ही गोबर लाओ , दीवार लीपो , कोट -कंगूरे , पालकी , पलना , सीढ़ी , चांद-सूरज, फूल-पत्ते, घोड़ा - बारात ,गनपति .. जाने कितने तरह के चित्र रोज हर घर की बाहरी दीवार पर बनते हैं । इन चित्रों को गुलबास , कनेर , गुड़हल के फूलों से सजाती हैं बालिकाएं । कभी चमकीले , रंगीन कागजों से भी । किसकी संजा सुन्दर हो ,यह होड़ भी है ।
हर घर के आंगन में अनौपचारिक उत्सव के मजे लेते बच्चे संजा का असली सौंदर्य है ।
आइये सब मिलकर फिर से अपनी इस लुप्त होती परम्परा को पुनः प्रारंभ करें।